"कचरे का ढेर"
भोर की पौ फटते ही
वो भी उठता है,
सूरज की तरह अठखेलियाँ करता हुआ ।
मुख पर उसके
मलिन मुस्कान,
क्या ताज़ी हवा में वो
यही ढूंढ रहा है ?
जीवन चक्र में अभी से
यह प्रतिस्पर्धा ?
अभी उसने जाना ही कहाँ है,
जीने का सलीका,
मगर निपुणता में वह किसी से कम भी नहीं ।
दौड़कर, मुस्कुराकर
खिंच लेना अपनी नियति
किसी की परवाह के बिना
और
परवाह हो भी क्यों ?
आखिर लोगों ने उसे दिया ही क्या है -
'कचरे का ढेर'
आलोक कुमार गिरि
(स.अ.)
बेसिक शिक्षा विभाग
सिद्धार्थनगर
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