स्त्री मुक्ति का प्रश्न इतिहास और वर्तमान
राधा कुमार ने अपनी पुस्तक स्त्री संघर्ष का इतिहास में 19वीं सदी को स्त्रियों की शताब्दी कहा है । यूरोप के फ्रांसिसी क्रांति के बाद पूरे विश्व में स्त्री जागरूकता का विस्तार होना आरम्भ हुआ और नारीवादी विचारों को एक नयी अभिव्यक्ति मिली । उन्नीसवीं सदी के मध्य तक रुसी सुधारकों के लिए महिला-प्रश्न एक केंद्रीय मुद्दा बन गया था जबकि भारत में-खासतौर से बंगाल और महाराष्ट्र में समाज सुधारकों ने स्त्रियों में फैली बुराइयों पर आवाज उठाना शुरू किया । वैश्विक पटल पर संगठित नारी आन्दोलनों के साथ-साथ सामाजिक आर्थिक और राजनैतिक स्तरों पर नारी विषयक समस्याओं और प्रश्नों को उठाया गया । वस्तुतः नारीवाद की मूल अवधारणा समानता की अवधारणा पर केन्द्रित थी । जॉन स्टुअर्ट मिल ने नारीवादी चिंतन को स्त्री प्रश्न से जोड़ते हुए लिखा कि- परिवार मातृत्व और शिशुपालन सहित समस्त सामाजिक गतिविधियों एवं संस्थाओं में स्त्रियों की भूमिका अन्य सामाजिक-आर्थिक शोषण-उत्पीड़न के साथ ही यौन-भेद पर आधारित स्त्री-उत्पीड़न की विशिष्टता और स्त्री-मुक्ति से जुड़ी सभी समस्याओं का जटिल समुच्चय है- स्त्री-प्रश्न। वस्तुतः स्त्री-प्रश्न के अंतर्गत महिलाओं द्वारा पुरुषों की तुलना में सामनाधिकार की मांग सामाजिक स्तर पर बराबरी अर्थस्वातंत्र्य देह की मुक्ति और लैंगिक भेद को समाप्त करने जैसे प्रमुख मुद्दों को तरजीह दी गयी और यह तब संभव होता जब स्त्रियाँ पुरुषों की गुलामी के जंजीरों से मुक्त होतीं ।
स्त्री-मुक्ति की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए रमणिका गुप्ता कहती हैं कि स्त्री-मुक्ति का तात्पर्य स्त्री के विषय में उसके सुख-सुविधाओं से लेकर प्रत्येक समस्या के परिप्रेक्ष्य में ऐतिहासिक सामाजिक धार्मिक सांस्कृतिक आर्थिक और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से सूक्ष्म से सूक्ष्मतम चिंतन-मनन कर अस्वस्थ दृष्टिकोणों को स्वस्थता प्रदान करना। वहीं चाल्र्स फुरिए सामाजिक स्तर पर स्त्री की आज़ादी को एक मानक निर्धारित करते हुए कहतें हैं कि किसी भी समाज में आज़ादी का एक बुनियादी पैमाना यह है कि उस समाज विशेष में स्त्रियाँ किस हद तक आजाद हैं । समाज परिवार की महत्तम इकाई है और इस सामाजिक संरचना में स्त्री-पुरुष एक दुसरे के पूरक हैं । जब पुरुष को हर क्षेत्र और हर स्तर पर कोई भी कार्य करने की स्वतंत्रता प्राप्त है तो जाहिर है कि स्त्रियों को भी पुरुषों के समान वैसी ही स्वतंत्रता उपलब्ध होनी चाहिए क्योंकि स्त्री की मुक्ति में समाज की मुक्ति का रहस्य छिपा हुआ है।
वैश्विक स्तर पर अनेक देशों की सामाजिक संरचना पितृसत्तात्मक रही है । इसी सामाजिक पितृसत्तात्मक वर्चस्व के कारण स्त्री हजारों वर्षों से पुरुषों की गुलाम बनकर रही है । स्त्री पर अपने आधिपत्य और वर्चस्व को बनाये रखने के लिए पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने ऐसे नियम कानून सिद्धांत और मान्यताओं को बनाया जिससे स्त्री को अधिकाधिक उपनिवेश बनाकर रखा जा सके । मिशेल फूको के अनुसार अनुशासन वह व्यवस्था है जो स्त्री को घर परिवार समाज के अधीन रहना सिखाती है । इसी अनुशासन में ढलते-ढलते उसकी स्वेच्छाचारिता या स्वतंत्रता को अर्जित कर ली गयी है । ग्राम्शी ने इसे सांस्कृतिक प्रभुत्व कहा है । पर्यन्त सहनशीलता नैतिकता को नारी का सर्वाेच्च गुण माना गया और कहा गया कि सर्वाेच्च नारी वही है जो पितृसत्तात्मक अनुशासन का पालन बखूबी करती है और जो प्रतिरोध नहीं करती । स्त्री की अप्रतिरोधी धारणा का लाभ पितृसत्तात्मक व्यवस्था को मिला फलस्वरूप स्त्रियाँ पुरुषों की उपनिवेश बनकर रह गयीं । स्त्रियों की समस्याओं का समाधान क्या हो सकता है इस पर अपने विचार रखते हुए रमणिका गुप्ता कहती हैं सबसे ज्यादा जरुरी है स्त्रियों में मुक्त होने अपनी पहचान बनाने अपना स्वाभिमान निर्मित करने स्वावलंबी बनने अपनी रक्षा खुद करने अपनी देह के बारे में अपना निर्णय खुद लेने की इच्छा शक्ति पैदा करना।
पश्चिम में नारी मुक्ति की मुहिम औद्योगिक क्रांति के साथ शुरू हुयी मगर भारत में इस मुद्दे पर विचार एक सामाजिक सुधार के प्रयास के फलस्वरूप हुआ । भारत में सर्वप्रथम स्त्री मुक्ति के प्रश्न पर विचार 19वीं सदी के आरम्भ में तब शुरू हुआ जब बंगाल में राजा राममोहन राय ने सती प्रथा के खिलाफ़ आवाज़ उठाई साथ ही शिक्षा और संपत्ति में हक दिलाने की सिफारिश की । ईश्वरचंद विद्यासागर ने स्त्रियों की समानता तथा विधवाओं की दशा में सुधार के लिए आजीवन प्रयास किये । उन्होंने 1856 ई० में हिन्दू विडोज मैरिज एक्ट बनाकर विधवा विवाह को मान्यता प्रदान करवाया । स्वामी दयानंद सरस्वती ने बाल विवाह बहुविवाह और पर्दा प्रथा जैसी कुरीतियों का विरोध किया साथ ही स्त्री-शिक्षा पर भी बल दिया । स्वामी विवेकानंद ने भी अन्य समाज सुधारकों की भांति अन्धविश्वास तथा कुप्रथाओं का विरोध करते हुए स्त्री-शिक्षा पर बल दिया । भारत में स्त्री मुक्ति आन्दोलन का वास्तविक उत्कर्ष 19वीं सदी के आखिरी दशकों में हुआ । पंडिता रमाबाई रमाबाई रानाडे आनन्दीबाई जोशी भगिनी निवेदिता ताराबाई शिंदे रुख्माबाई एनी बेसेंट सरोजिनी नायडू स्वर्ण कुमारी देवी सरला देवी चैधरानी जैसी अनके जागरूक महिलाओं ने अपने घरों से बाहर निकलकर सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों में अपनी सक्रियता और सहभागिता दर्ज की । भारतीय परिप्रेक्ष्य में स्त्री मुक्ति आन्दोलन और राष्ट्रवादी आन्दोलन दोनों सहगामी क्रियाएं रहीं । पश्चिम में स्त्रियों को अपने अधिकारों के लिए लम्बे समय तक पुरुषों के खिलाफ मोर्चा बांधकर लड़ना पड़ा था वहीं भारत में नारी जागृति और उनकी मुक्ति के लिए प्रथम प्रयास नवजागरणकाल में भारतीय समाज सुधारकों और जन नेताओं के द्वारा किये गए। नवजागरणकाल में सामाजिक सुधार और सामाजिक चेतना की लहर एक साथ उठी और इन सुधारवादी आन्दोलनों में स्त्रियों की भूमिका बढ़-चढ़ कर रही । 1892 ई० में पंडिता रमाबाई ने स्त्रियों की शिक्षा और रोजगार के लिए पूना में शारदा सदन की स्थापना की । 1886 ई० में स्वर्ण कुमारी देवी ने लेडीज एशोसिएसन स्थापित किया और भारती पत्रिका के संपादिका के रूप में उन्होंने अपने पत्रिका के माध्यम से महिलाओं में जागृति की लहर पैदा की । श्रीमती एनी बेसेंट ने थियोसोफिकल सोसाइटी के माध्यम से भारतीय महिलाओं की दशा सुधारने के लिए काफी प्रयास किये।
आज 21वीं सदी में स्त्री विमर्श का एक व्यापक स्वरुप है आज की स्त्री और स्त्री विमर्श का दायरा बहुत आगे निकल आया है । भारतीय सन्दर्भ में यह बात निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि स्वतंत्रता प्राप्ति और संविधान निर्मिती के बाद भी स्त्रियों को सामान सिविल राइट्स से लेकर शिक्षा स्वास्थ्य घरेलू हिंसा ग्लोबल वल्र्ड में स्त्री की अस्पष्ट भूमिका यौन उत्पीड़न लैंगिक असमानता भ्रूण हत्या महिला आरक्षण ह्यूमन ट्रैफिकिंग और रोजगार के असमानता जैसे समस्याओं से प्रतिदिन रूबरू होना पड़ता है । ये आज के स्त्रीवादी विमर्श के मूल मुद्दे हैं इन मुद्दों के सापेक्ष बहुत से सार्थक प्रयास भी हो रहें हैं । हालांकि इतना ही पर्याप्त नहीं क्योंकि अब भी बहुत कुछ करना बाकी है । भारत की 99 प्रतिशत स्त्रियां सुहाग-भाव पति-परमेश्वर पारिवारिक इज्जत की अवधारणाओं से ग्रस्त हैं ये अवधारणायें एक ग्रंथि की सीमा तक पहुँच चुकी हैं उनके अंतर्मन में कुंडली जमकर बैठी हुई हैं । हमें इनसे निजात पानी है तो अपने को इनसे मुक्त करना ही होगा ।
सन्दर्भ -
1-स्त्री संघर्ष का इतिहास राधा कुमार वाणी प्रकाशन 2011 पृ० 23
2-स्त्रियों की पराधीनता जॉन स्टुअर्ट मिल राजकमल प्रकाशन 2003 पृ० 10
3-स्त्रियों की पराधीनता जॉन स्टुअर्ट मिल राजकमल प्रकाशन 2003 पृ० 16
5-स्त्रीवादी साहित्य विमर्श जगदीश्वर चतुर्वेदी अनामिका पब्लिशर्स नई दिल्ली 2011 पृ० 202
5-स्त्री मुक्ति संघर्ष और इसिहास रमणिका गुप्ता सामयिक प्रकाशन 2014 पृ० 117 हिंदी नवजागरण गजेन्द्र पाठक विश्वविद्यालय प्रकाशन वाराणसी 2005 पृ० 05
अलोक कुमार गिरी
सहायक अध्यापक
बेसिक शिक्षा परिषद सिद्धार्थनगर उत्तर प्रदेश
0 comments :